शब्दों का भण्डार नहीं है, फिर भी कलम चलाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
“रूप” नहीं है, रंग नहीं है,
भाव नहीं है, छन्द नहीं है।
कागज के कृत्रिम फूलों में,
कोई गन्ध-सुगन्ध नहीं है।
आड़ी-तिरछी रेखाओं से, अपनी फसल उगाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
सिद्ध नहीं हूँ, सिद्धि नहीं है,
मस्तक तो है, बुद्धि नहीं है।
मिली मुझे बंजर वसुधा है,
जीवन तो है, ऋद्धि नहीं है।
अँखियों के खारे पानी को, मुखड़े पर ढलकाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
भूखा सारा कुटुम-कबीला,
कंगाली में आटा गीला।
कालचक्र है जटिल जलेबी,
धरती के ऊपर नभ नीला।
झंझावातों की चक्की में, मैं तो पिसता जाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
मैं हूँ साधक तेरा माता,
तन-मन से तेरा उद्गाता।
आया हूँ मैं द्वारे तेरे,
दूर करो अब संकट मेरे।
तेरे चरणों में माता, मैं अपना शीश नवाता हूँ।
कोरे पन्नों को स्याही से, काला ही कर पाता हूँ।।
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सोमवार, 3 अक्टूबर 2016
वन्दना "अपना शीश नवाता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर गीत ।
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar geet
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जवाब देंहटाएंBahut sundar feet
जवाब देंहटाएंBahut sundar feet
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar geet
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar geet
जवाब देंहटाएंकृपा-याचना हेतु साधक की अकिंचनता का सुन्दर निरूपण!
जवाब देंहटाएंकाफी सुंदर गीत !
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