बैंक हुई कंगाल सब, किसका है ये दोष।
उसको कहें दिवालिया, जिसका खाली कोष।।
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प्रजातन्त्र में क्यों हुआ, तन्त्र प्रजा से दूर।
समझो इसके मूल में शासक को मगरूर।।
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बैंकों के बाहर लगीं, लम्बी बहुत कतार।
अपने ही धन के लिए, जनता है लाचार।।
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मासिक वेतन हो भले, चाहे साठ हजार।
पैसा पाने के लिए, मिलती है फटकार।।
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सन्नाटा बाजार में, रुके जरूरी काज।
धन के आज अकाल से, सहमा हुआ समाज।।
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इन्तजाम के बाद ही, करना था ऐलान।
अफरा-तफरी में किया, जारी क्यों फरमान।।
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सेवक मनमानी करें, बनकर अफलातून।
रोज-रोज ही देश में, बदल रहे कानून।।
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नयी करंसी से हुई, खाली अब टकसाल।
शासन मालामाल है, जनता है कंगाल।।
-- सच को लिखने से डरे, अब शायर-फनकार। करता उनकी कलम को, मैं सौ-सौ धिक्कार।। |
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2016
दोहे "जनता है कंगाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
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बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएं"सच को लिखने से डरे, अब शायर-फनकार।
जवाब देंहटाएंकरता उनकी कलम को, मैं सौ-सौ धिक्कार"
नयी करंसी से हुई, खाली अब टकसाल।
जवाब देंहटाएंशासन मालामाल है, जनता है कंगाल।।
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सच को लिखने से डरे, अब शायर-फनकार।
करता उनकी कलम को, मैं सौ-सौ धिक्कार।।
...बहुत सही सामयिक रचना
मासिक वेतन हो भले, चाहे साठ हजार।
जवाब देंहटाएंपैसा पाने के लिए, मिलती है फटकार।।
बिलकुल सही कहा आपने!!