इतना सितम अच्छा नहीं अपने सरूर पे
तुम खुद ही पुरज़माल हो अपने शऊर पे
इंसानियत को दरकिनार कर दिया तुमने
इतना नशे में चूर हो अपने गुरूर पे
दिल से नहीं दिमाग़ से सोचा करो कभी
रोटी पकाना सीखिए अपने तँदूर पे
यूँ अपनी इबादत का दिखावा न कीजिए
ईमान भी तो लाइए अपने हुजूर पे
कितना ग़ुमान “रूप” को अपने फितूर पे
गिनते नहीं हो खामियाँ अपने कसूर पे
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सोमवार, 17 जुलाई 2017
ग़ज़ल "रोटी पकाना सीखिए अपने तँदूर पे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुंदर गजल.
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही लाजवाब.
जवाब देंहटाएंरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
कभी-कभी मन में आता है कि व्यंजन बनाना सिखाने की तो दर्जनों दुकाने खुल गयी हैं, पर गोल-गोल ढंग से सिकी रोटी बनाना कोई नहीं सिखाता, सिवा माँ के
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
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