मज़हबों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी।।
सभ्यता की आँधियाँ, जाने कहाँ ले जायेंगी,
काम के उद्वेग ने, पकड़ा हुआ है आदमी।
छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में,
रोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी।
हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में
ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी।
बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत,
आदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी।
“रूप” तो है इक छलावा, रंग पर मत जाइए,
नगमगी परिवेश में, पिछड़ा हुआ है आदमी।
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मंगलवार, 29 अगस्त 2017
ग़ज़ल "मज़हबों की कैद में, जकड़ा हुआ है आदमी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बिक रही है कौड़ियों में, देख लो इंसानियत,
जवाब देंहटाएंआदमी की पैठ में, बिगड़ा हुआ है आदमी।
...वाह...बहुत सुन्दर और सटीक
छिप गयी है अब हकीकत, कलयुगी परिवेश में,
जवाब देंहटाएंरोटियों के देश में, टुकड़ा हुआ है आदमी।
हम चले जब खोजने, उसको गली-मैदान में
ज़िन्दग़ी के खेत में, उजड़ा हुआ है आदमी।
आदरणीय आपकी एक -एक पंक्तियाँ लाज़वाब हैं बहुत सुन्दर
उम्दा ! शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31-08-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2713 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद