कल नये थे अब पुराने हो गये हैं।
पेड़ जंगल के सयाने हो गये हैं।।
वक्त की रफ्तार ने जीना सिखाया,
जिन्दगी ने व्याकरण को है भुलाया,
प्यार-उल्फत के ठिकाने खो गये हैं।
अब तरानों में नहीं वो आग है,
सुर नहीं, बस बेसुरा सा राग है,
चहकते नक्कारखाने सो गये हैं।
शब्द बदले और कोमल भाव बदले,
अर्थ बदले, प्रीत के अनुभाव बदले,
चूर सपने सब सुहाने हो गये हैं।
स्वार्थ के रँग में रँगे अनुबन्ध हैं,
बस दिखावे के लिए सम्बन्ध हैं,
“रूप” अपने भी बिराने हो गये हैं।
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शनिवार, 28 अक्टूबर 2017
गीत "उल्फत के ठिकाने खो गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार ३० अक्टूबर २०१७ को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंवक्त की रफ़्तार ने सबको जीना सिखा कर ही छोड़ा -सबकुछ कितना बदल गया .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुति......
बस दिखावे के लिए संबंध है ।
जवाब देंहटाएंरूप अपने भी विराने हो गए।।
बहुत खूब