नदिया-नाले सूख रहे हैं, जलचर प्यासे-प्यासे हैं।
पौधे-पेड़ बिना पानी के, व्याकुल खड़े उदासे हैं।। चौमासे के मौसम में, सूरज से आग बरसती है। जल की बून्दें पा जाने को, धरती आज तरसती है।। नभ की ओर उठा कर मुण्डी, मेंढक चिल्लाते हैं। बरसो मेघ धड़ाके से, ये कातर स्वर में गाते हैं।। दीन-कृषक है दुखी हुआ, बादल की आँख-मिचौली से। पानी अब तक गिरा नही, क्यों आसमान की झोली से? तितली पानी की चाहत में दर-दर घूम रही है। फड़-फड़ करती तुलसी की ठूँठों को चूम रही है।। दया करो घनश्याम, सुधा सा अब तो जम करके बरसो। रिमझिम झड़ी लगा जाओ, अब क्यों करते कल-परसों? |
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सोमवार, 9 जुलाई 2018
कविता "अब तो जम करके बरसो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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