गूँगी गुड़िया बोलती, अब बातें बेबाक।
चमत्कार को देखकर, दुनिया है आवाक।।
गया महीना माघ का, आया फागुन मास।
लोगों को होने लगा, गरमी का आभास।।
दस्तक देता द्वार पर, होली का त्यौहार।
धूल भरी चलने लगी, चारों ओर बयार।।
आया समय बसन्त का, खिलने लगा पलाश।
देख विफलताएँ कभी, होना नहीं निराश।।
हटा दीजिए चमन से, खर पतवार समूल।
आँचल में रखना सदा, रंग-बिरंगे फूल।।
जो प्रतिदिन रचना करे, कहते उसे कवीन्द्र।
जग को दे जो रौशनी, होता वही रवीन्द्र।।
महका उपवन देखकर, होता है दिलबाग।
वासन्ती परिवेश में, उमड़ रहा अनुराग।।
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शनिवार, 29 फ़रवरी 2020
दोहे "आया फागुन मास" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०१ -0३-२०२०) को 'अधूरे सपनों की कसक' (चर्चाअंक -३६२७) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
इस बार होली-मिलन की अहमियत पहले से लाख गुनी बढ़ गयी है. हम सबको आज पुराने गिले-शिकवे भुला कर गले आपस में मिलने की बहुत-बहुत ज़रुरत है.
जवाब देंहटाएंहोली की मस्त बयार हम से कह रही है कि -
हम सब प्यार की होली खेलें और खून की होली खेलने से हमेशा-हमेशा के लिए तौबा कर लें.
वाह लाजवाब शानदार सर आपने होली की मन भावन चित्ररत के साथ साथ मंच के सभी चर्चाकारों को सुंदर कलम बद्ध दोहों में बांध दिया ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।