खुश
हो करके अंग लगाती। धरती
की जो प्यास बुझाती, वो
पावन गंगा कहलाती।। आड़े-तिरछे
और नुकीले, पाषाणों
को तराशती है। पर्वत
से मैदानों तक जो, अपना
पथ खुद तलाशती है। गोमुख
से सागर तक जाती। वो
पावन गंगा कहलाती।। फसलों
को नवजीवन देती, पुरखों
का भी तर्पण करती। मैल
हटाती-स्वच्छ बनाती, मन
का निर्मल दर्पण करती। कल-कल, छल-छल
नाद सुनाती। वो
पावन गंगा कहलाती।। चलना
ही जीवन होता है जो
रुकता है वो सड़ जाता, जो
पत्रक नहीं लहराता है, वो
पीला पड़कर झड़ जाता। चरैवेति
सन्देश सिखाती। वो
पावन गंगा कहलाती।। मैला
और विषैला पानी, गंगा
में अब नहीं बहाओ। समझो
अपनी जिम्मेदारी, गंगा
का अस्तित्व बचाओ। जो
अपने पुरखों की थाती। वो
पावन गंगा कहलाती।। |
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शनिवार, 16 अक्तूबर 2021
गीत "गोमुख से सागर तक जाती" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-10-21) को "/"रावण मरता क्यों नहीं"(चर्चा अंक 4220) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
अति उत्तम गंगा महिमा आ0
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रविष्टि
जवाब देंहटाएंगंगा को बचाने का इतनी खूबसूरती से किया गया आव्हान, बहुत खूब। पर्वत से मैदानों तक जो,
जवाब देंहटाएंअपना पथ खुद तलाशती है।
हमें भी उनके पथ को निष्कंटक करना होगा
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंगंगा जी की महिमा का खूबसूरत वर्णन ।
जवाब देंहटाएं