-- देता है ऋतुराज निमन्त्रण, तन-मन का शृंगार करो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- नये पंख पक्षी पाते हैं, नवपल्लव वृक्षों में आते, आँगन-उपवन, तन-मन सबके, वासन्ती होकर मुस्काते, स्नेह और श्रद्धा-आशा के दीपों का आधार धरो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- मन के हारे हार और मन के जीते ही जीत यहाँ, नजर उठा करके तो देखो, बुला रही है प्रीत यहाँ, उड़ने को उन्मुक्त गगन है, मन के जरा विकार हरो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- धर्म-अर्थ और काम-मोक्ष के, लिए मिला यह जीवन है, मैल हटाओ, द्वेश मिटाओ, निर्मल तन में निर्मल मन है, दीन-दुखी को गले लगाओ, समता का व्यवहार करो। पतझड़ की मारी बगिया में, फिर से नवल निखार भरो।। -- |
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रविवार, 26 फ़रवरी 2023
गीत "मन के जरा विकार हरो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह, बहुत सुंदर और सामयिक अभिव्यक्ति आदरणीय।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन आदरणीय ! बसंत के साथ ही प्रकृति में विशेष परिवर्तन होते हैं सुखद और सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंपतझड़ के बाद बसंत आगमन का बहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा सृजन आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर, सादर चरण स्पर्श ।सभी सद्भावों को समेटी, अध्यात्म और सात्विकता से परिपूर्ण रचना। बपश कर बहुत आनंद आया और बहुत प्रेरणा मिली। आज बहुत दिनों बाद आ कर आपके ब्लॉग को पढ़ने का सौभाग्य मिला। परीक्षाएं खत्म हुईं कुछ दिन पहले, अब इंटर्नशिप की बारी है। अपना आशीष दीजिये। पुनः प्रणाम आपको।
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