बेटी से आबाद हैं, सबके घर-परिवार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
दुनिया में दम तोड़ता, मानवता का वेद।
बेटा-बेटी में बहुत, जननी करती भेद।।
बेटा-बेटी के लिए, हों समता के भाव।
मिल-जुलकर मझधार से, पार लगाओ नाव।।
माता-पुत्री-बहन का, कभी न मिलता प्यार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
पुरुषप्रधान समाज में, नारी का अपकर्ष।
अबला नारी का भला, कैसे हो उत्कर्ष।।
कृष्णपक्ष की अष्टमी, और कार्तिक मास।
जिसमें पुत्रों के लिए, होते हैं उपवास।।
ऐसे रीति-रिवाज को, बार-बार धिक्कार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
जिस घर में बेटी रहे, समझो वे हरिधाम।
दोनों कुल का बेटियाँ, करतीं ऊँचा नाम।।
कुलदीपक की खान को, देते क्यों हो दंश।
अगर न होंगी बेटियाँ, नहीं चलेगा वंश।।
बेटों जैसे दीजिए, बेटी को अधिकार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
लुटे नहीं अब देश में, माँ-बहनों की लाज।
बेटी को शिक्षित करो, उन्नत करो समाज।।
एक पर्व ऐसा रचो, जो हो पुत्री पर्व।
व्रत-पूजन के साथ में, करो स्वयं पर गर्व।।
सेवा करने में कभी, सुता न माने हार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
माता का ये रूप हैं, देतीं जग को ज्ञान।
शिक्षित माता हो अगर, शिक्षित हों सन्तान।।
संविधान में कीजिए, अब ऐसे बदलाव।
माँ-बहनों के साथ मैं, बुरा न हो बरताव।।
क्यों पुत्रों की चाह में, रहे पुत्रियाँ मार।
अगर न होती बेटियाँ, थम जाता संसार।।
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016
दोहागीत "हों समता के भाव" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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