मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।
बरफी-लड्डू
के चित्र देखकर,
अपने
मन को बहलाते हैं।।
आलू, चावल
और रसगुल्ले,
खाने
को मन ललचाता है,
हम
जीभ फिराकर होठों पर,
आँखों
को स्वाद चखाते हैं।
मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।।
गुड़
की डेली मुख में रखकर,
हम
रोज रात को सोते थे,
बीते
जीवन के वो लम्हें,
बचपन
की याद दिलाते हैं।
मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।
हर
सामग्री का जीवन में,
कोटा
निर्धारित होता है,
उपभोग
किया ज्यादा खाकर,
अब
जीवन भर पछताते हैं।
मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।
थोड़ा-थोड़ा
खाते रहते तो,
जीवन
भर खा सकते थे,
पेड़ा
और बालूशाही को,
हम
देख-देख ललचाते हैं।
मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।
हमने
खाया मन-तन भरके,
अब
शिक्षा जग को देते हैं,
खाना
मीठा पर कम खाना,
हम
दुनिया को समझाते हैं।
मधुमेह
हुआ जबसे हमको,
मिष्ठान
नही हम खाते हैं।
|
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रविवार, 28 फ़रवरी 2016
"हम देख-देख ललचाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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