पत्थर पर चलकर नहीं,
होगा
यह अनुमान।
क़दम क़दम पर घास में, भरा हुआ है ज्ञान।।
समीक्षा "क़दम
क़दम पर घास" (दोहा
संग्रह)
रचनाकार डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ख़ुद को औरों से कम आँकना महानता और
भारतीय संस्कृति की सदा से प्रमुख विशेषता रही है लेकिन सैकड़ों ग़ज़लों, हज़ारों दोहों, दर्जनों भजनों, तमाम बाल साहित्य और विभिन्न विषयों पर अनगिनत कविताओं
के रचनाकार, काव्य की विभिन्न विधाओं पर छःप्रकाशित पुस्तकों सहित
विपुल साहित्यिक भंडार के धनी, "उच्चारण" पत्रिका के भूतपूर्व संपादक तथा अनेक
साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित कोई शख़्स अगर अपनी रचनाओं को तुकबंदियाँ कहे
तो यह शायद उसके अन्दर की वह सरलता है जो हर सीने में नहीं होती।
कहा जाता है कि अपने बारे में लिखना मुश्किल है, औरों पर लिखना आसान। इस बात से सौ फ़ीसदी असहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन जब आपको रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जैसी शख़्सियत और उनके कृतित्व पर लिखना हो तो यह काम बहुत आसान भी नहीं है मेरे ख़याल में, क्योंकि शास्त्री जी ऐसे असाधारण व्यक्ति हैं जो स्वयं को साधारण मानते हैं और मानते ही नहीं बल्कि अपने दोहा संग्रह 'क़दम-क़दम पर घास' की 'अपनी बात' में अपनी छःदशक की सारी रचनाओं को तुकबंदी कहकर इसका ऐलान भी करते हैं। कोई साधारण व्यक्ति ऐसा असाधारण ऐलान अपने बारे में नहीं कर सकता। शास्त्री जी पेशे से वैद्य हैं। सक्रिय तौर पर सियासत में तो नहीं हैं लेकिन समाज और समाज सेवा से इतने गहरे तक जुड़े हैं कि खटीमा के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हर छोटे-बड़े आयोजन में उनकी उपस्थिति राजनेताओं के समान ही रहती है। उनका जन्मस्थान और मूल जनपद तो बिजनौर है लेकिन दशकों से खटीमा में रहते हुए वो लगभग यहीं के हो चुके हैं। शास्त्री जी से फ़ेसबुकी परिचय तो काफ़ी पहले से था लेकिन मुलाक़ात का बहाना बना 10 अप्रैल 2016 को खटीमा में "दोहा शिरोमणि सम्मान और पुस्तक विमोचन समारोह" का आयोजन। सौभाग्य से तब तक मैं भी 'दोहा शिरोमणि' हो चुका था इसलिए मुझे भी उक्त कार्यक्रम का निमन्त्रण मिला था। इस कार्यक्रम के अंत में शास्त्री जी ने सभी अतिथियों को अपनी प्रकाशित सभी छः पुस्तकें भेंट कीं। उनकी भेंट का वास्तविक सम्मान करते हुए डा.राकेश सक्सेना जी (एटा) और श्रीमती रेखा लोढ़ा जी (भीलवाड़ा) ने खटीमा से वापस जाते ही उनकी पुस्तकों पर अपने-अपने भाव लिखकर एक सप्ताह में ही पोस्ट कर दिए। हो सकता है कुछ अन्य साहित्यकारों ने और भी अपनी समीक्षाएँ पोस्ट की हों लेकिन मेरी दृष्टि में नहीं आईं।
अतः इस क्रम में डा. राकेश सक्सेना और श्रीमती रेखा लोढ़ा 'स्मित' जी
के अतिरिक्त अन्य किसी का ज़िक्र यदि मुझसे जानकारी के अभाव में छूट रहा हो तो
उसके लिए क्षमा चाहूँगा।
जैसा कि मैं ऊपर ज़िक्र कर चुका हूँ कि 10 अप्रैल को कार्यक्रम के अन्त में शास्त्री जी ने सभी अतिथियों को अपनी छःप्रकाशित पुस्तकें भेंट की थीं। स्वाभाविक जिज्ञासा में उसी समय सभी का कम-ओ-बेश अध्ययन भी किया लेकिन कुछ व्यक्तिगत कार्यों में ऐसी व्यस्तता रही कि चाहते हुए भी मैं शास्त्री जी की किसी कृति पर कुछ लिख नहीं सका। उनकी सभी पुस्तकें अपने में पूर्ण हैं इसलिए यदि एक साथ सभी छःपुस्तकों पर मैं कुछ लिखने की कोशिश करता तो शायद अपने लेखन के साथ ही अन्याय होता। अतः सर्वप्रथम उनके एक दोहा संग्रह 'क़दम क़दम पर घास' पर मन के भावों को शब्द देने का प्रयास कररहाहूँ। रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' की कृति 'क़दम क़दम पर घास' दोहों की एक ऐसा अनुपम कालीन है जिसे शास्त्री जी घास मानते हैं। यह भी उनका एक अलग अंदाज़ ही है। इस कृति में 70 से अधिक शीर्षकों में 700 से अधिक दोहों को शास्त्री जी ने जगह दी है। सागर में तमाम पत्थरों में एक-दो या कुछ मोती तलाश करना तो फिर भी आसान है लेकिन मोतियों के ढेर में से अच्छे या सबसे अच्छे मोती को ढूँढना बहुत मुश्किल है। क़दम क़दम पर घास के सवा सात सौ दोहों में से कुछ का चयन अपने भावों को सजाने के लिए करना मेरे लिए भी मोतियों के ढेर में से कुछअच्छे मोतियों को ढूँढने के समान ही हैं। सभी की अपनी-अपनी पसंद होती है और 'क़दम क़दम पर घास' के इन दोहों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया-
“कितने
भी संताप हों, होती नहीं उदास।
नहीं हारना जानती, धरती की ये घास।। जीवित माता-पिता को ,पुत्र रहे दुत्कार। पितृपक्ष में उमड़ता, झूठा श्रद्धा-प्यार।। अपनी माता के वसन, लोग रहे हैं नोच। आज सपूतों की हुई, कितनी गंदी सोच।। श्रम से अर्जित आय से, पूरी होती आस। सागर के जल से कभी, नहीं मिटेगी प्यास।। बिन मर्यादा यश मिले, गति-यति का क्या काम। गद्यगीत को मिल गया, कविता का आयाम।। आशा है मन में यही, आयेंगे अवतार। मेरे भारत देश का, होगा तब उद्धार।। जल्दी-जल्दी बाँट दे, निज गठरी का ज्ञान। नहीं साथ में जाएगा, कंचन विमल वितान।। ख़ुशी बाँटने के लिए, जन्मा है इन्सान। चार दिनों की ज़िंदगी, काहे का अभिमान।। आदिकाल से चल रहा, धूप-छाँव का खेल। चौराहों पर राह का, हो जाता है मेल।। एक पर्व ऐसा रचो, जो हो पुत्री पर्व। व्रत-पूजन के साथ में, करो स्वयं पर गर्व।। चटके दर्पण की कभी, मिटती नहीं दरार। सिर्फ़ दिखावे के लिए, ढोंगी करता प्यार।।
ऐसे ही अनेक दोहे और भी हैं इस संग्रह
में जो हर उस आदमी को कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देंगे,
जिन्हें
संवेदनशील दिल मिला है। एक सजग साहित्यकार की भूमिका निभाते हुए शास्त्री जी घर,
परिवार,
समाज
और देश-दुनिया सभी के लिए चिंतित नज़र आते हैं। वो जिस तरह अपने मरीज़ को बीमारी
भी बताते हैं और बीमारी ठीक करने की दवा भी देते हैं एक चिकित्सक के नाते,
उसी
तरह एक साहित्यकार के रूप में तमाम विसंगतियों की ओर इशारा करके उन्हें दूर करने
का रचनाधर्मिता का भी अपना धर्म निभाने के लिए सदैव तत्पर दिखाई देते हैं।
शास्त्री जी या उनके कारनामों की कोई भी तशरीह तब तक अधूरी है जब तक सियाक़-ओ-सबाक़ के रूप में उनके परिवार का ज़िक्र न किया जाए। अप्रैल में खटीमा जाने पर उनके घर-परिवार से भी मिलने का मौक़ा मिला। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती अमर भारती, पुत्रगण नितिन और विनीत तथा पुत्रवधु पल्लवी सभी अतिथियों के प्रति इस तरह समर्पित थे कि जैसे बरसों से जानते हों। उनके अपनत्व से प्राचीन भारतीय 'अतिथि देवो भव' की परम्परा की कल्पना मन में साकार हो उठी। परमपिता उनके दिलों में सदैव ये भाव बनाए रखें। अन्त में, यही कामना और ईश्वर से प्रार्थना है कि ईश्वर की कृपा हमेशा इसी प्रकार शास्त्री जी तथा उनके परिवार पर बरसती रहे और वे इसी प्रकार अबाध रूप से सतत् साहित्य साधना करते हुए लम्बे समय तक देश-दुनिया, समाज और मानवता की सेवा करते रहें। जीवेत् शरदः शतम्।
प्रकाशक-आरती प्रकाशन, लालकुआँ (नैनीताल)
पुस्तक का मूल्य - 200रुपये मात्र
मिलने का पता-
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
टनकपुर-रोड, खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड)
चलभाष- 7417619828, 9997996437
नेक ख़्वाहिशात के साथ-
डॉ.हरि
फ़ैज़ाबादी
लखनऊ 01-07-2016 |
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शनिवार, 2 जुलाई 2016
समीक्षा "क़दम क़दम पर घास" (समीक्षक-डॉ. हरि 'फ़ैज़ाबादी')
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