अच्छे
दिन की चाह में, जनता है बदहाल।
महँगे
होते जा रहे, आटा चावल-दाल।
बाजारों
में एक से, कभी न रहते भाव।
आता
कभी उतार तो, आता कभी चढ़ाव।।
रहती
एक समान कब, नक्षत्रों की चाल।
कभी
रुलाती प्याज तो, कभी टमाटर लाल।
सरकंडे
के नीड़ में, बंजारों का वास।
निर्धनता
का हो रहा, पग-पग पर उपहास।।
मन
में तो रावण छिपा, जिह्वा पर श्रीराम।
फिर
कैसे होगा भला, रामलला का काम।
मलयानिल
से आ रही, शीतल सुखद बयार।
पानी
पर हिम जम गया, नौका है लाचार।।
धरा-गगन
पर आजकल, कुहरे का है राज।
मैदानी
भूभाग से, रवि लगता नाराज।।
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बुधवार, 22 नवंबर 2017
दोहे "रवि लगता नाराज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंव्यथा व वर्तमान अवस्था की सरलतम अभिव्यक्ति। सरकंडा शब्द का प्रयोग सच में लोक से जोड़ने वाला है। सूरज तो चाहे न चाहे पर नाराज दिखना ही पड़ेगा उसे हमने उसके लिये धुंधभरा रंगमंच जो तैयार किया है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23-11-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2796 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वर्तमान की व्यथा ।।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना !!