देर तलक मझधार में, तब से रहती नाव।।
संसद जाने के लिए, उमड़ रही है भीड़।
पलकों में सबकी सजा, लोकतन्त्र का नीड़।।
जाति-धर्म के नाम पर, दंगे और फसाद।
राजनीति में बढ़ रहा, केवल कुनबावाद।।
अगर किसी की खुल गई, एक बार तकदीर।
जीवन भर वो चाहता, बनना यहाँ वजीर।।
जनता से जिनका नहीं, रहा कभी सम्बन्ध।
उन्हें सियासत की यहाँ, आती खूब सुगन्ध।।
बेटे-पोतों के लिए, सब करते अनुबन्ध
आती है जनतन्त्र में, राजतन्त्र की गन्ध।।
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शनिवार, 27 अप्रैल 2019
दोहे "केवल कुनबावाद" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-04-2019) को " गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन की ९९ वीं पुण्यतिथि " (चर्चा अंक-3319) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी
सटीक दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शास्त्री जी ! आपकी राजनीतिक दोहों में साहस के साथ सीधी, सच्ची और खरी बात कहते हैं. आपके अंतिम दोहे पर मुझे अपना एक छंद याद आ गया -
जवाब देंहटाएंसंविधान में अधिकारों की बात लिखी है,
पर सबका हक़ मार जिएं, यह मन भाता है.
अपनी गद्दी, संतानों के नाम, कर सकें,
लोकतंत्र, ऐसा ही, उनको रास आता है.