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चौकीदार गिना रहे, पाँच साल के काम। आज दाँव पर लगा है, नामदार का नाम।। -- आम आदमी पर पड़ी, महँगाई की मार। जीवनयापन का यहाँ, खिसक रहा आधार।। -- बात-बात में हो रही, आपस में तकरार। प्यार-प्रीत की राह में, आया है व्यापार।। -- बैठा जीवन शाख पे, पाखी गाता गीत। सरगम के सुर भूलकर, बजा रहा संगीत।। -- कदम-कदम पर सुलगते, जीवन में अंगार। अश्कों से कैसे बुझें, ज्वाला के अम्बार।। -- राजनीति की बिछ रहीं, चारों ओर बिसात। आम आदमी को मिली, कदम-कदम पर मात।। -- हाथों में डण्डे लिए, झण्डे रहे सँभाल। चमचे लेकर साथ में, करते खूब धमाल।।
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कथनी-करनी अलग है, झूठ रहे सब बोल।
बैर-भाव के जहर को, रहे दिलों में घोल।।
-- नौका लहरों में फँसी, बेबस खेवनहार। नाविक अब ऐसे कहाँ, जो ले जाये पार।। -- झुकी पत्तियाँ पेड़ की, करती क्रन्दन आज। गरमी में बारिश हुई, सहमा देश-समाज।। |
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रविवार, 7 अप्रैल 2019
दोहे "झण्डे रहे सँभाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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राजनीति के चक्र की गति समझे नहिं कोय,
जवाब देंहटाएंकाले कर्मों से यहाँ, फ़्यूचर उज्जवल होय.
राजनीती के हर पहलू और हर व्यक्ति का
जवाब देंहटाएंसमावेश कर बहुत ही शानदार दोहे ..