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सन-सन
शीतल चला पवन,
सरदी
ने रंग जमाया।
ओढ़
चदरिया कुहरे की,
सूरज
नभ में शर्माया।।
जलते
कहीं अलाव, सेंकता
बदन कहीं है कालू,
कोई
भूनता शकरकन्द को, कोई
भूनता आलू,
दादा
जी ने अपने तन पर,
कम्बल
है लिपटाया।
ओढ़
चदरिया कुहरे की,
सूरज
नभ में शर्माया।।
जितने
वस्त्र लपेटो, उतना
ही ठण्डा लगता है,
चन्दा
की क्या कहें, सूर्य
भी शीत उगलता है,
धूप
गुनगुनी पाने को,
सबका
मन है ललचाया।
ओढ़
चदरिया कुहरे की,
सूरज
नभ में शर्माया।।
--
काजू
और बादाम, स्वप्न जैसे लगते निर्धन को,
मूँगफली
खाकर देते हैं, सभी दिलासा मन को,
गजक-रेवड़ी
के दर्शन कर,
दिल
को समझाया।
ओढ़
चदरिया कुहरे की,
सूरज
नभ में शर्माया।।
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गुरुवार, 16 जनवरी 2020
गीत "सूर्य भी शीत उगलता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-01-2020) को " सूर्य भी शीत उगलता है"(चर्चा अंक - 3583) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता 'अनु '
वाक़ई सूर्य भी शीत उगलता लगता है !
जवाब देंहटाएंइस बार ठण्ड ने अपने सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए. जाड़ों में खिली धूप के लिए इन्सान तो क्या, फूल-पौधे भी तरस रहे हैं और ऊपर से बे-मौसम बरसात तो और भी सितम ढा रही है.
अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं