मेरी पुस्तक "ग़ज़लियात-ए-रूप" से
एक ग़ज़ल
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सुखद बिछौना सबको प्यारा लगता है
यह तो दुनिया भर से न्यारा लगता है
जब पूनम का चाँद झाँकता है नभ से
उपवन का कोना उजियारा लगता है
सुमनों की मुस्कान भुला देती दुखड़े
खिलता गुलशन बहुत दुलारा लगता है
जब मन पर विपदाओं की बदली छाती
तब सारा जग ही दुखियारा लगता है
देश चलाने वाले हाट नहीं जाते
उनको तो मझधार किनारा लगता है
बातों से जनता का पेट नहीं भरता
सुनने में ही प्यारा नारा लगता है
दूर-दूर से “रूप” पर्वतों का भाता
बाशिन्दों को कठिन गुजारा लगता है
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020
ग़ज़ल "कठिन गुजारा लगता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-04-2020) को "तप रे मधुर-मधुर मन!" (चर्चा अंक-3667) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
वाह वाह वाह
जवाब देंहटाएंक्या लिखा है.
नयी रचना- एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए
बढ़िया !
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक अभिव्यक्ति। सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर गजल सर ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंसुंदर गजल
जवाब देंहटाएंआपकी की लेखनी को नमन
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं