आजादी तो मिल गई, पर जनता बदहाल। रोगी को औषध नहीं, दस्तक देता काल।। -- सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल। नोट जेब में हैं नहीं, कौन खरीदे माल।। -- फाँस गले में फँस गयी, शासक है लाचार। नये-नये कानून क्यों, लाती है सरकार।। -- निर्धन-निर्बल देश में, हुए आज मजबूर। सत्याग्रह को कर रहे, खेतीहर-मजदूर।। -- गेहूँ बोने को चले, नहीं मिल रहा खाद। धरती के भगवान का, जीवन है बरबाद।। -- जिनके मत से पा गये, सत्ता की जागीर। अब कैसे समझें भला, वो जनता की पीर।। -- रोज विमानों में उड़ें, राजा और वजीर। करते लच्छेदार हैं, जनता में तकरीर।। -- |
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रविवार, 14 नवंबर 2021
दोहे "खेतीहर-मजदूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (15 -11-2021 ) को 'सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल' (चर्चा अंक 4249) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव