जीवन की हकीकत का, इतना सा है फसाना खुद ही जुटाना पड़ता, दुनिया में आबोदाना सुख के सभी हैं साथी, दुख का कोई न संगी रोते हैं जब अकेले, हँसता है कुल जमाना घर की तलाश में ही, दर-दर भटक रहे हैं खानाबदोश का तो, होता नहीं ठिकाना अपना नहीं बनाया, कोई भी आशियाना लेकिन लगा रहे हैं, वो रोज शामियाना मंजिल की चाह में ही, दर-दर भटक रहे हैं बेरंग जिन्दगी का, उलझा है ताना-बाना अशआर हैं अधूरे, ग़ज़लें नहीं मुकम्मल दुनिया समझ रही है, लहजा है शायराना हो हुनर पास में तो, भर लो तमाम झोली मालिक के दोजहाँ में, भरपूर है खजाना लड़ते नहीं कभी भी, बगिया में फूल-काँटे सीखो चमन में जाकर, आपस में सुर मिलाना दिल की नजर से देखो, मत “रूप”-रंग परखो रच कर नया तराना, महफिल में गुनगुनाना |
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सोमवार, 30 मई 2022
ग़ज़ल "सीखो चमन में जाकर, आपस में सुर मिलाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहतरीन रचना आदरणीय।
जवाब देंहटाएंजीवन की हकीकत का, इतना सा है फसाना
जवाब देंहटाएंखुद ही जुटाना पड़ता, दुनिया में आबोदाना
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-5-22) को हे सर्वस्व सुखद वर दाता(चर्चा अंक 4447) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल ! खुमार बाराबंकवी का एक शेर याद आ गया -
जवाब देंहटाएं'फूल कांटो से निबाह कर लेता है,
आदमी, आदमी से नहीं करता.'
लड़ते नहीं कभी भी, बगिया में फूल-काँटे
जवाब देंहटाएंसीखो चमन में जाकर, आपस में सुर मिलाना
वाह! कितनी सुंदर बात, सरल और सुमधुर शब्दों में