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रविवार, 8 फ़रवरी 2009
कलियुग का व्यक्ति (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’)
क्या शायर की भक्ति यही है?
शब्द कोई व्यापार नही है,
तलवारों की धार नही है,
राजनीति परिवार नही है,
भाई-भाई में प्यार नही है,
क्या दुनिया की शक्ति यही है?
निर्धन-निर्धन होता जाता,
अपना आपा खोता जाता,
नैतिकता परवान चढ़ाकर,
बन बैठा धनवान विधाता,
क्या जग की अनुरक्ति यही है?
छल-प्रपंच को करता जाता,
अपनी झोली भरता जाता,
झूठे आँसू आखों में भर-
मानवता को हरता जाता,
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है?
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शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंआपको मेरे चिट्ठे पर टिप्पणी करने में जो कष्ट हुआ उसके लिये मुझे खेद है। पर इस बात की ख़ुशी भी है कि इस बहाने आपकी कविताएँ पढ़ने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। भविष्य में आप जब भी मेरी रचनाओं से रू-ब-रू होना चाहें तो कृपया www.kavyanchal.blogspot.com पर देखें। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपको टिप्पणी लिखने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।