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रविवार, 8 फ़रवरी 2009
‘‘आदमी’’ का चमत्कार (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आदमी के भार को, ढोता रहा है आदमी।।
आदमी का विश्व में, बाजार गन्दा हो रहा।
आदमी का आदमी के साथ, धन्धा हो रहा।।
आदमी ही आदमी का, भूलता इतिहास है।
आदमी को आदमीयत का नही आभास है।।
आदमी पिटवा रहा है, आदमी लुटवा रहा।
आदमी को आदमी ही, आज है लुटवा रहा।।
आदमी बरसा रहा, बारूद की हैं गोलियाँ।
आदमी ही बोलता, शैतानियत की बोलियाँ।।
आदमी ही आदमी का,को आज है खाने लगा।
आदमी कितना घिनौना, कार्य अपनाने लगा।।
आदमी था शेर भी और आदमी बिल्ली बना।
आदमी अजमेर था और आदमी दिल्ली बना।।
आदमी था ठोस, किन्तु बर्फ की सिल्ली बना।
आदमी के सामने ही, आदमी खिल्ली बना।।
आदमी ही चोर है और आदमी मुँह-जोर है ।
आदमी पर आदमी का, हाय! कितना जोर है।।
आदमी आबाद था, अब आदमी बरबाद है।
आदमी के देश में, अब आदमी नाशाद है।।
आदमी की भीड़ में, खोया हुआ है आदमी।
आदमी की नीड़ में, सोया हुआ है आदमी।।
आदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से।
आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।।
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बहुत ही सही लिखा है।आजकल यही हाल हो गया है आदमी का।बहुत सामयिक रचना है।बधाई।
जवाब देंहटाएंआदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से।
आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।।