बिजलियों के सवेरे बहुत हैं यहाँ वो जो अपने लहू से संवारे चमन अब न तेरे न मेरे बहुत हैं यहाँ पर निकलते बिदकने लगे नीड़ से उन परिन्दों के डेरे बहुत हैं यहाँ आँख से आँख को कोई पैग़ाम दे ऐसे बादल घनेरे बहुत हैं यहाँ आशियाँ मत बनाना तू शैली अभी आँधियों के तो फेरे बहुत हैं यहाँ श्रीमती आशा शैली "हिमाचली" |
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सोमवार, 21 फ़रवरी 2011
"ग़ज़ल-आशा शैली हिमाचली" (प्रस्तोता-डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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kya bat hai ! shaili ji ,khubsurat gajal ke liye sadhuvad . padha man ko chhu gaya .
जवाब देंहटाएंthis is indeed very good!!
जवाब देंहटाएंbahut sunder rachna
जवाब देंहटाएंaapka aabhar
वो जो अपने लहू से संवारे चमन
जवाब देंहटाएंअब न तेरे न मेरे बहुत हैं यहाँ
पर निकलते बिदकने लगे नीड़ से
उन परिन्दों के डेरे बहुत हैं यहाँ
बहुत खूब और मतला भी लाजवाब है। आशा शैली जी को बधाई।
वाह ...बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंbahut umda gazal..
जवाब देंहटाएंhar sher lajawab.
prastuti ke liye aabhar.
बहुत सुन्दर... बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद आशा जी की ग़ज़लों को पढ़ा, हर शेर नपा-तुला और अभिव्यक्तियाँ भावात्मक, खुबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें !
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