अब कैसे दो शब्द
लिखूँ, कैसे उनमें अब भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते
छालों के, कैसे अब मैं घाव
भरूँ?
मौसम की विपरीत
चाल है,
धरा रक्त से हुई
लाल है,
दस्तक देता कुटिल
काल है,
प्रजा तन्त्र का
बुरा हाल है,
बौने गीतों में
कैसे मैं, लाड़-प्यार और
चाव भरूँ?
तन-मन के रिसते
छालों के, कैसे अब मैं घाव
भरूँ?
पंछी को परवाज
चाहिए,
बेकारों को काज
चाहिए,
नेता जी को राज
चाहिए,
कल को सुधरा आज
चाहिए,
उलझे ताने और
बाने में, कैसे सरल स्वभाव
भरूँ?
तन-मन के रिसते
छालों के, कैसे अब मैं घाव
भरूँ?
भाँग कूप में
पड़ी हुई है,
लाज धूप में खड़ी
हुई है,
आज सत्यता डरी
हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी
हुई है,
रेतीले रजकण में
कैसे, शक्कर के अनुभाव
भरूँ?
तन-मन के रिसते
छालों के, कैसे अब मैं घाव
भरूँ?
|
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रविवार, 31 अगस्त 2014
"गीत-दो शब्द" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंदिनांक 01/09/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
हमेशा की तरह बहुत सुन्दर गीत 1 बधाई1
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव और शब्दों से सुसज्जित गीत
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत !
जवाब देंहटाएंगणपति वन्दना (चोका )
हमारे रक्षक हैं पेड़ !
अति सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ! मन के भाव खोल कर रखे हैं !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंकवि मन की विवशता और पीड़ा को सुंदर शब्द देता गीत
जवाब देंहटाएंभाँग कूप में पड़ी हुई है, लाज धूप में खड़ी हुई है, आज सत्यता डरी हुई है, तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
जवाब देंहटाएंसुंदर मनोहर भाव पूर्ण अपने परिवेश की गंध लिए सशक्त गीत ।
शुक्रिया हमारा सेतु शरीक करने के लिए सुन्दर समायोजन सभी सेतुओं का आपने किया है।
जवाब देंहटाएं