सुख का सूरज नहीं गगन में।
कुहरा पसरा आज वतन में।।
पाला पड़ता, शीत बरसता,
सर्दी में है बदन ठिठुरता,
तन ढकने को वस्त्र न पूरे,
निर्धनता में जीवन मरता,
पौधे मुरझाये गुलशन में।
कुहरा पसरा आज वतन में।।
आपाधापी और वितण्डा,
बिना गैस के चूल्हा ठण्डा,
गइया-जंगल नजर न आते,
पायें कहाँ से लकड़ी कण्डा,
लोकतन्त्र की आजादी तो,
बन्धक है अब राजभवन में।
कुहरा पसरा आज वतन में।।
जोड़-तोड़ षडयन्त्र यहाँ है?
गांधीजी का मन्त्र कहाँ है?
जिसके लिए शहादत दी थी.
वो जनता का तन्त्र कहाँ है?
कब्ज़ा है अब दानवता का,
मानवता के इस कानन में।
कुहरा पसरा आज वतन में।।
विदुरनीति का हुआ सफाया,
दुर्नीति ने पाँव जमाया,
आदर्शों को धता बताकर,
देश लूटकर सबने खाया,
बरगद-पीपल सूख गये हैं,
खर-पतवार उगी उपवन में।
कुहरा पसरा आज वतन में।।
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बुधवार, 2 जनवरी 2019
गीत "जय-विजय पत्रिका में मेरा गीत" (सुख का सूरज नहीं गगन में)
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3.1.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3205 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
लाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शास्त्री जी.
जवाब देंहटाएं'कुहरा पसरा आज वतन में' आपने कह तो दिया है, इस पर हमारे देशभक्त आप से कितना नाराज़ होंगे, इसके बारे में कभी आपने सोचा है?
कमाल का गीत अग्रज
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