सम्बन्धों पर हो रहे, जग में शोध प्रबन्ध।
बन जाते हैं किसलिए, जीवन में सम्बन्ध।।
अधिक समय टिकता नहीं, सम्बन्धों का योग।
अनचाहे सम्बन्ध में, होते सदा वियोग।।
कभी जुदाई है यहाँ, और कभी संयोग।
खोज रहे इतिहास हैं, सम्बन्धों का लोग।।
मन तो मिलता है नहीं, तन का है अनुबन्ध।
कैसे अन्तिम समय तक, टिकें यहाँ सम्बन्ध।।
मन के उपवन में उगे, झाड़ और झंखाड़।
सम्बन्धों के नाम पर, होता है खिलवाड़।।
जब से आया जगत में, नंगेपन का काल।
सम्बन्धों में आ गया, तब से ही भूचाल।।
पावन और पवित्र है, सम्बन्धों की रीत।
सोच-समझकर कीजिए, अनजानों से प्रीत।।
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सोमवार, 11 मई 2020
दोहे "सम्बन्धों का योग" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत खूब .... दोहों की खान है आपका ब्लॉग तो ... हर विषय पर हाजिर ...
जवाब देंहटाएंनमसकार शास्त्री जी ...
दोहे के है आप अनुकूल
जवाब देंहटाएंशिक्षित करते भाव समूल , बहुत सुंदर 🙏🙏
सटीक विश्लेषण
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11 -5 -2020 ) को " ईश्वर का साक्षात रूप है माँ " (चर्चा अंक-3699) पर भी होगी, आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
क्षमा चाहती हूँ आमंत्रण में मैंने दिनांक गलत लिख दिया हैं ,आज 12 -5 -2020 की प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत हैं। असुविधा के लिए खेद हैं।
हटाएंएक तो दोहे के रूप में रचनायें , तिस पर मूल्यों पर कटाक्ष ... क्या बात है शास्त्री जी ... बहुत खूब लिखा यथार्थ कि ''जब से आया जगत में, नंगेपन का काल।
जवाब देंहटाएंसम्बन्धों में आ गया, तब से ही भूचाल।।''
बेहतरीन प्रस्तुति 👌
जवाब देंहटाएं