कोरोना के काल में, श्रमिक हुए मजबूर।
होते निकट चुनाव तो, पूजित थे मजदूर।।
होती खातिर-तवज्जो, जैसे हों दामाद।
माल और असबाब से. करते सब इमदाद।।
फटी बिवाई देखकर, होते बहुत अधीर।
नेताओं की आँख से, बहता खारा नीर।।
खाने को भोजन नहीं, बेबस हुए मजूर।
तेज धूप में जल रहे, घर से होकर दूर।।
दर-दर ठोकर खा रहे, भारत के श्रमवीर।
कोई नहीं समझ रहा, आज श्रमिक की पीर।।
जिनके श्रम से हैं बने, कोठी-महल-मकान।
पैदल चलकर दे रहे, वो सड़कों पर जान।।
तब ही देते ढील कुछ, जब विषाणु था न्यून।
साठ दिनों के बाद क्यों, शिथिल किया कानून।।
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शनिवार, 23 मई 2020
दोहे "भारत के श्रमवीर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर भावपूर्ण सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसार्थकता लिए भावपूर्ण दोहे ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया दोहे
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
ना कोई दवा सामने आई नाहीं वैक्सीन बनी ! घरबंदी भी कामनहीं आई ! अब ढील......
जवाब देंहटाएंजहां से चले थे वहीं आ गए, हालात ठीक नहीं लग रहे
तब ही देते ढील कुछ, जब विषाणु था न्यून।
जवाब देंहटाएंसाठ दिनों के बाद क्यों, शिथिल किया कानून
. तब तो रहीशजादों की फिक्र थी, गरीब तो जैसे गुलामी के लिए ही पैदा हुआ हो, आने वाले समय में उनकी जब जरुरत पड़ेगी तब लॉली पॉप हाथ में पकड़ा देंगे और क्या।
तब ही देते ढील कुछ, जब विषाणु था न्यून।
जवाब देंहटाएंसाठ दिनों के बाद क्यों, शिथिल किया कानून।।
बिलकुल सही कहा आपने ,भावपूर्ण और चिंतनीय सृजन ,सादर नमस्कार सर
जिनके श्रम से हैं बने, कोठी-महल-मकान।
जवाब देंहटाएंपैदल चलकर दे रहे, वो सड़कों पर जान।।
सही कहा बहुत ही सुन्दर सार्थक विचारणीय दोहे।
सत्य पर सीधा प्रहार करते हृदय स्पर्शी दोहे यथार्थ और सार्थक।
जवाब देंहटाएं