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हर सिक्के के दो पहलू हैं, उलट-पलटकर देख ज़रा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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हर पत्थर हीरा बन जाता, जब किस्मत नायाब हो,
मोती-माणिक पत्थर लगता, उतर गई जब आब हो,
इम्तिहान में पास हुआ वो, तपकर जिसका तन निखरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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नंगे हैं अपने हमाम में, नागर हों या बनचारी,
कपड़े ढकते ऐब सभी के, चाहे नर हों या नारी,
पोल-ढोल की खुल जाती तो, आता साफ नज़र चेहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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गर्मी की ऋतु में सूखी थी, पेड़ों-पौधों की डाली,
बारिश के मौसम में, छा जाती झाड़ी में हरियाली,
पानी भरा हुआ गड्ढा भी, लगता सागर सा गहरा।
बिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
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मंगलवार, 25 अगस्त 2020
गीत "हर सिक्के के दो पहलू हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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हर सिक्के के दो पहलू हैं, उलट-पलटकर देख ज़रा।
जवाब देंहटाएंबिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
बहुत बढ़िया।
वाह ... बहुत अच्छा गीत है ...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत सही कहा सर!
जवाब देंहटाएंहर सिक्के के दो पहलू हैं, उलट-पलटकर देख ज़रा।
जवाब देंहटाएंबिन परखे क्या पता चलेगा, किसमें कितना खोट भरा।।
-- बेहतरीन पंक्तियाँ । वैसे तो पूरी कविता में ही आज के युग का यथार्थ प्रकट हुआ है। लेकिन उपरोक्त दो पंक्तियों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया। हार्दिक आभार और शुभकामनाएं ।
वाह!बेहतरीन सर।
जवाब देंहटाएं