-- नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे! जनसेवक खाते हैं काजू, महँगाई खाते बेचारे!! -- काँपे माता-काँपे बिटिया, भरपेट न जिनको भोजन है, क्या सरोकार उनको इससे, क्या नूतन और पुरातन है, सर्दी में फटे वसन फटे सारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!! -- जो इठलाते हैं दौलत पर, वो खूब मनाते नया-साल, जो करते श्रम का शीलभंग, वो खूब कमाते द्रव्य-माल, भाषण में हैं कोरे नारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!! -- नव-वर्ष हमेशा आता है, सुख के निर्झर अब तक न बहे, सम्पदा न लेती अंगड़ाई, कितने दारुण दुख-दर्द सहे, मक्कारों के वारे-न्यारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!! -- रोटी-रोजी के संकट में, कुछ दूर देश में जाते हैं, कहने को अपने सारे हैं, पर झूठे रिश्ते-नाते हैं, सब स्वप्न हो गये अंगारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!! -- टूटा तन-मन भी टूटा है, अभिलाषाएँ बस जिन्दा हैं, आयेगीं जीवन में बहार, यह सोच-सोच शरमिन्दा हैं, कब चमकेंगें नभ में तारे! नव-वर्ष खड़ा द्वारे-द्वारे!! -- |
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गुरुवार, 30 दिसंबर 2021
गीत "जनसेवक खाते हैं काजू, महँगाई खाते बेचारे!!" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(३१-१२ -२०२१) को
'मत कहो अंतिम महीना'( चर्चा अंक-४२९५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर रचना
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