झनकइया
वन में लगा, मेला बहुत विशाल। वियाबान
के बीच में, बिकता सस्ता माल।। नदी
शारदा में किया, उत्सव का स्नान। खिचड़ी
खाकर प्रेम से, किया खूब जलपान।। बिकती
गरम जलेबियाँ, और पकौड़ी-चाट। जंगल
में मंगल हुआ, सजा हुआ है हाट।। कहीं
सिँघाड़े बिक रहे, गुब्बारों की धूम। मेले
में उल्लास से, लोग रहे हैं घूम।। बहुत
करीने से सजा, चाऊमिन का नीड़। जिसको
खाने के लिए, लगी बहुत है भीड़।। फल
के ठेले हैं यहाँ, फूलों की दूकान। मनचाहा
रँग छाँट लो, रंगों की है खान।। ऊँचे
झूले हैं लगे, भाँति-भाँति के खेल। सर्कस
के इस खेल मे, भारी रेलम-पेल।। सब्जी
बिकती धान से, दाम नहीं है पास। बिन
पैसे के हो रहा, मेला आज उदास।। घर
के दाने बिक रहे, बिगड़ रही है बात। महँगाई
की मार से, विकट हुए हालात।। आदिवासियों
ने यहाँ, डेरा दिया जमाय। जंगल
में मंगल किया, पिकनिक रहे मनाय।। आओ
अब घर को चलें, घिर आई है शाम। लिखने-पढ़ने
के हमें, करने हैं कुछ काम।। |
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सोमवार, 7 नवंबर 2022
दोहे "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-11-22} को "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (चर्चा अंक-4606) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं