-- राह
है काँटों भरी, मंजिल बहुत ही दूर है देख
कुदरत का करिश्मा, आदमी मजबूर है -- है
हवाओं में जहर, आतंक का बरपा कहर आजकल
का आदमी, कितना नशे
में चूर है -- आशिकी में के खेल में, ऐसी दगाबाजी मिली प्यार की दीवानगी में, लुट गया सब नूर है -- नेह
के बिन तोड़ता दम, भाईचारे का दिया देश-दुनिया
में भरी, अब नफरतें
भरपूर है -- इंसानियत
की हो हिफाजत, अब यहाँ कैसे भला वादियों
में मौत का, अब बन गया दस्तूर है -- अमन
के नारे चमन से, हो गये हैं अलविदा शायरी के नाम पर, शायर हुए मगरूर है बिक
रही है आज अस्मत, 'रूप' के बाजार में, सभ्यता
मेरे वतन की, आज चकनाचूर है -- |
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मंगलवार, 22 नवंबर 2022
ग़ज़ल "आदमी मजबूर है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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उम्दा!, यथार्थ ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंपीड़ादायक यथार्थ चित्रण
जवाब देंहटाएंयथार्थ चित्रण अप्रतिम रचना
जवाब देंहटाएं