-- पेड़ काट कर जब किये, नंगे शैल पहाड़। करने
को तब सन्तुलन, शिवजी रहे दहाड़।। -- फटते जब ज्वालामुखी, आते तब भूचाल। जीव-जन्तुओं
पर तभी, मँडराता है काल।। -- जीवन
के इस सफर में, कहीं चढ़ाई-ढाल। करते
बहुत विनाश को, क्षणभंगुर भूचाल।। -- पेड़ों को जब काटकर, बुने भवन के जाल। पर्वत पर आने लगे, तब से ही भूचाल।। -- मर्दन करने दर्प का, आते हैं भूचाल। थमे
हुए ही नीर में, बनते हैं शैवाल।। -- मनुज बनाने में लगा, क्रूर काल के जाल। इसीलिए
तो आ रहे, दुनिया में भूचाल।। -- आदत
पल-पल बदलता, कलयुग में इन्सान। देख
हमारे ढंग को, बदल रहा भगवान।। -- |
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गुरुवार, 10 नवंबर 2022
दोहे "आया फिर भूचाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 10 नवंबर 2022 को 'फटते जब ज्वालामुखी, आते तब भूचाल' (चर्चा अंक 4608) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
'आदत पल-पल बदलता, कलयुग में इन्सान।
जवाब देंहटाएंदेख हमारे ढंग को, बदल रहा भगवान।'... सुन्दर अभिव्यक्ति आ. डॉ. शास्त्री 'मयङ्क' जी! प्रकृति-सन्तुलन का काल बन रहे मानवीय कुचक्र पर प्रभावी प्रहार है आपकी यह रचना!
धरती की पीड़ा को व्यक्त करती पंक्तियाँ
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