-- अपने छोटे से जीवन में कितने सपने देखे मन में -- इठलाना-बलखाना सीखा हँसना और हँसाना सीखा सखियों के संग झूला-झूला मैंने इस प्यारे मधुबन में कितने सपने देखे मन में -- भाँति-भाँति के सुमन खिले थे आपस में सब हिले-मिले थे प्यार-दुलार दिया था सबने बचपन बीता इस गुलशन में कितने सपने देखे मन में -- एक समय ऐसा भी आया जब मेरा यौवन गदराया विदा किया बाबुल ने मुझको भेज दिया अनजाने वन में कितने सपने देखे मन में -- मिला मुझे अब नया बसेरा नयी शाम थी नया सवेरा सारे नये-नये अनुभव थे अंजाने से इस आँगन में कितने सपने देखे मन में -- कुछ दिन बाद चमन फिर महका बिटिया आयी, जीवन चहका चहका लेकिन करनी पड़ी विदाई भेज दिया नूतन उपवन में कितने सपने देखे मन में -- नारी की तो कथा यही है आदि काल से प्रथा रही है पली कहीं तो, फली कहीं है दुनिया के उन्मुक्त गगन में कितने सपने देखे मन में -- |
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बुधवार, 23 नवंबर 2022
गीत "जीवन-चक्र" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
सार्थक मिल लिए सुंदर गीत।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंउन्नत विचार शैली की अद्भुत रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएं