गीत सुनाती माटी अपने, गौरव और गुमान की। दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।। -- खेतों में उगता है सोना, इधर-उधर क्यों झाँक रहे? भिक्षुक बनकर हाथ पसारे, अम्बर को क्यों ताँक रहे? आज जरूरत धरती माँ को, बेटों के श्रमदान की। दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।। -- हरियाली के चन्दन वन में, कंकरीट के जंगल क्यों? मानवता के मैदानों में, दावनता के दंगल क्यों? कहाँ खो गयी साड़ी-धोती, भारत के परिधान की। दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।। -- टोपी-पगड़ी, चोटी-बिन्दी, हमने अब बिसराई क्यों? अपने घर में अपनी हिन्दी, सहमी सी सकुचाई क्यों? कहाँ गयी पहचान हमारे, पुरखों के अभिमान की। दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।। -- कहाँ गया ईमान हमारा, कहाँ गया भाई-चारा? कट्टरपन्थी में होता, क्यों मानवता का बँटवारा? मूरत लुप्त हो गयी अब तो, अपने विमल-वितान की।। दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।। -- |
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सोमवार, 12 दिसंबर 2022
गीत "मानवता का बँटवारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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