वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा।।
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मंगलवार, 19 जनवरी 2010
“वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा!” (ड़ॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
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वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा।।
जवाब देंहटाएंवाह .. बहुत खूब !!
behtreen rachna..........bahut sundar.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंaapke upar to maa ki aseem anukampa hai ........bahut hi behtreen nagine jade huye hain is rachna mein..........kin shabdon mein tarif karoon shabd bhi kam pad rahe hain.ek bahut hi pak - saaf kavita...............badhayi.
जवाब देंहटाएंपीछे मुड़ के कभी मैंने देखा नही,
जवाब देंहटाएंधन के आगे कभी माथा टेका नही,
शब्द कमजोर थे, शेर गढ़ता रहा।
वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा।।
अति सुन्दर, काश कि ये आज के मातहत भी इस बात से प्रेरणा ले पाते !
बहुत प्रेरणादायक रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत अच्छा लिखा है , मंजुमाला में कंकड़ नहीं हीरे मोती ही जड़ता रहा , कहिये !
जवाब देंहटाएंaafareen shastri ji!!
जवाब देंहटाएंपीछे मुड़ के कभी मैंने देखा नही,
जवाब देंहटाएंधन के आगे कभी माथा टेका नही,
शब्द कमजोर थे, शेर गढ़ता रहा।
वन्दना वीणा-पाणि की पढ़ता रहा।
कितने सुन्दर शब्द मन को छूते चले गये, आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये ।
हम जैसे नए लेखको/कवियों को प्ररित करती सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंपीछे मुड़ के कभी मैंने देखा नही,
जवाब देंहटाएंधन के आगे कभी माथा टेका नही,
शब्द कमजोर थे, शेर गढ़ता रहा...
बहुत लाजवाब लिखा है शास्त्री जी ......... दिल में ज़ज़्बा रहने वाले कभी झुकते नही ........
बहुत सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंशानदार रचना , ये जज्बा बना रहे
जवाब देंहटाएं"आपको वीणा-पाणि का आशीष इसी प्रकार हमेशा मिलता रहे!"
जवाब देंहटाएं--
मिलत, खिलत, लजियात ... ... ., कोहरे में भोर हुई!
लगी झूमने फिर खेतों में, ओंठों पर मुस्कान खिलाती!
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संपादक : सरस पायस
अति ऊत्तम रचना, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना. वसन्तपन्चमी की शुभकामनायें.
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