पहले पाबन्दियाँ थीं हँसने में, अब सिसकने में भी लगे पहरे। पहले बदनामियाँ थीं छिपने में, अब चमकने में भी लगे पहरे। कितने पैबन्द हैं लिबासों में, जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे, पहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, अब ठहरने में भी लगे पहरे। शूल बिखरे हुए हैं राहों मे, नेक-नीयत नहीं निगाहों में पहले थीं खामियाँ सँवरने में, अब उजड़ने में भी लगे पहरे। अब हवाएँ जहर उगलतीं हैं, अब फिजाएँ कहर उगलतीं हैं, पहले गुटबन्दियाँ थीं कुनबे में, अब तो महकनें में भी लगे पहरे। ‘रूप’ जबसे हुआ है आवारा, तबसे बदनाम हुआ गलियारा, पहले गुमनामियाँ थीं रहने में, अब चहकने में भी लगे पहरे। |
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
"लगे पहरे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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"अब हवाएँ जहर उगलतीं हैं, अब फिजाएँ कहर उगलतीं हैं,
जवाब देंहटाएंपहले गुटबन्दियाँ थीं कुनबे में, अब तो महकनें में भी लगे पहरे।"....
khoobsurat kavita... samaik muddo par vimarsh !
‘रूप’ जबसे हुआ है आवारा, तबसे बदनाम हुआ गलियारा
जवाब देंहटाएं'रूप' आवारा हो गया है,यह तो बड़े सोच की बात है,भाई जी.
भाभी जी से शिकायत करनी पड़ेगी अब तो.
कितने पैबन्द हैं लिबासों में, जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे,
जवाब देंहटाएंपहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, अब ठहरने में भी लगे पहरे।
.
वाह क्या बात है. कमाल का लिख रहे हैं
mausam ne logo ko tara hai
जवाब देंहटाएंmanav jindagi se hara hai
sarkaar kya jaane garibo ki musibaat
kyoki usne put path ki jindgi ka nahi dekha najara hai
chhotawriters.blogspot.com
जिदगी बंद है चन्द सांसों में--
जवाब देंहटाएंभले, कुछ काम करले तू
जरा सा नाम कर ले तू
खुदा के घर भी जाना है --
कुछ इंतजाम कर ले तू ||
कभी-कभी अचानक
कुछ बड़ी बातें भी
कह जाता हूँ टिप्पणी में --
देखिये न तुक मिलाते-मिलाते --
कुछ धर्म-कर्म करने का, (इंतजाम कर लेने की बात)
सन्देश ही आ गया
अंतिम पंक्ति में ||
behtar
जवाब देंहटाएंपहले तो आपसे मज़े लेंगी फ़िर जब दुनियां को पता चलेगा तो बन जायेंगी अबला नारी
वाह शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंकितने पैबन्द हैं लिबासों में, जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे,
जवाब देंहटाएंपहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, अब ठहरने में भी लगे पहरे
ैया बात है शास्त्री जी! हर जगह पहरे ही पहरे...वाकई
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (02.07.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
विकास की अंधी दौड़ में निमग्न आज व्यक्ति को कहीं भी तस्सली नहीं है पहरे तो लगेंगे ही
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना।
जवाब देंहटाएंbahut behatreen kavita.padhkar bahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.... कमाल की रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएं‘रूप’जब से हुआ है आवारा,
जवाब देंहटाएंतबसे बदनाम हुआ गलियारा,
पहले गुमनामियाँ थीं रहने में,
अब चहकने में भी लगे पहरे।
क्या बात कही सर ! बहुत खूब ! " सहरा -ए- मुहब्बत निगाहों में ,अब निगाहों पर लगे पहरे " माफ़ी चाहेंगे गुश्ताखी की / बाग- बाग हो गया दिल ,शुक्रिया जी /
कितने पैबन्द हैं लिबासों में, जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे,
जवाब देंहटाएंपहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, अब ठहरने में भी लगे पहरे
बहुत बढ़िया..
धन्यवाद !
http://hbfint.blogspot.com/2011/07/blog-post_01.html
पहले गुमनामियाँ थीं रहने में,
जवाब देंहटाएंअब चहकने में भी लगे पहरे।
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल !
पहले पाबन्दियाँ थीं हँसने में, अब सिसकने में भी लगे पहरे।
जवाब देंहटाएंपहले बदनामियाँ थीं छिपने में, अब चमकने में भी लगे पहरे।
bahut sunder bhav liye gahan aur sunder abhibyakti.dil ko choo gai.mayankji aapki to har rachanaa nirali hoti hai,padhkar bahut achcha lagataa hai,badhaai aapko.
अब हवाएँ जहर उगलतीं हैं, अब फिजाएँ कहर उगलतीं हैं.
जवाब देंहटाएंएकदम सही.यही तो है चारो तरफ.
वाह ..बहुत खूब कहा है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, क्या बात है।
जवाब देंहटाएंपहले गुमनामियाँ थीं रहने में,
अब चहकने में भी लगे पहरे।
शूल बिखरे हुए हैं राहों मे, नेक-नीयत नहीं निगाहों में
जवाब देंहटाएंपहले थीं खामियाँ सँवरने में, अब उजड़ने में भी लगे पहरे।
यह पहरों का संसार निराला है जनाब
यहाँ साँसों पर भी पहरे लगे है
और बातो पर भी पहरे .....
aajkal libaason mein kewal paiband hee reh gaye hain!
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