है
यहाँ जीवन कठिन,
वातावरण
कितना सलोना।
बाँटता
सुख है सभी को,
मखमली
जैसा बिछौना।
पेड़-पौधें
हैं सजीले,
खेत
हैं सीढ़ीनुमा,
पर्वतों
की घाटियों में,
पल
रही है हरितिमा,
प्राणदायक
बूटियों से,
महकता
जंगल का कोना।
शारदा,
गंगो-जमुन का,
है
यहीं पर स्रोत-उदगम,
मन्दिरों-देवालयों
की,
छटा
अद्भुत और अनुपम,
किन्तु
आकर कुछ दरिन्दे,
खेल
रचते हैं घिनौना।
चोटियों
पर बर्फ की चादर
यहाँ
किसने बिछायी,
घाटियों
में नीर की गागर,
छनक-छन-छनछनायी,
देख
कुदरत का करिश्मा,
हो
गया इन्सान बौना।
इन
पहाड़ों की सतह में,
बस
रहे कुछ प्राण भी हैं
कंकड़ों
और पत्थरों में
रम
रहे भगवान भी हैं,
नाम
है पत्थर मगर,
पाषाण
हैं अनमोल सोना।
बाँटता सुख है सभी को,
मखमली जैसा बिछौना।।
|
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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013
"हो गया इन्सान बौना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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कितना मनभावन रचा, अद्भुत रचनाकार |
जवाब देंहटाएंजीव-जंतु पगडंडियां, शिखर स्रोत्र जलधार |
शिखर स्रोत्र जलधार, पार मानव ना पावे |
बहुत बहुत आभार, शैल वन हृदय सुहावे |
है धरती पर स्वर्ग, घूम लो चाहे जितना |
शांत होय मन व्यग्र, दृश्य मनभावन कितना ||
उत्कृष्ट रचना।
जवाब देंहटाएंआपके प्रदेश की बात ही कुछ और है...वहाँ जा के भगवान् हावी हो जाता है...और इंसान बौना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब ....कविता के रूप में सच सामने रख दिया है आपने
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर प्रकृति वर्णन!
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
बहुत उत्कृष्ट रचना ..
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति,साभार धन्यवाद,प्रकृति के दर्शन कराने के लिये.
जवाब देंहटाएंशारदा, गंगो-जमुन का,
जवाब देंहटाएंहै यहीं पर स्रोत-उदगम,
मन्दिरों-देवालयों की,
छटा अद्भुत और अनुपम,
किन्तु आकर कुछ दरिन्दे,
खेल रचते हैं घिनौना।
वाह आ0 शास्त्री जी सच मे हो गया इंसान बौना । सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएं