जो नये थे वो पुराने हो गये हैं।
पेड़ जंगल के सयाने हो गये हैं।।
वक्त की रफ्तार ने जीना सिखाया,
जिन्दगी ने व्याकरण को है भुलाया,
प्यार-उल्फत के ठिकाने खो गये हैं।
अब तरानों में नहीं वो आग है,
सुर नहीं हैं, बेसुरा सा राग है,
चहकते नक्कारखाने सो गये हैं।
शब्द बदले और कोमल भाव बदले,
अर्थ बदले, प्रीत के अनुभाव बदले,
चूर सब सपने सुहाने हो गये हैं।
स्वार्थ के रँग में रँगे अनुबन्ध हैं,
बस दिखावे के लिए सम्बन्ध हैं,
“रूप” अपने भी बिराने हो गये हैं।
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सोमवार, 18 नवंबर 2013
"पेड़ जंगल के सयाने हो गये हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता लिखी है शास्त्री जी आपने भूतकाल को वर्त्तमान के साथ बहुत ही चतुराई और सुंदरता के साथ स्थापित किया है
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी हमें भी अपना शिष्य बना लीजिये
बेहतरीन भाव संयोजित किये हैं आपने ....
जवाब देंहटाएंआभार उत्कृष्ट प्रस्तुति का
shandar prastuti
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब! वाह!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवक्त की रफ्तार ने जीना सिखाया,
जवाब देंहटाएंजिन्दगी ने व्याकरण को है भुलाया,
प्यार-उल्फत के ठिकाने खो गये हैं।
बहुत सुंदर.
नई पोस्ट : मेघ का मौसम झुका है
वाह बहुत ही सुंदर !
जवाब देंहटाएंपेड़ जंगल के सयाने हो गए .. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंपेड़ जंगल के सयाने हो गए ..
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
अति सुन्दर नवगीत.........
जवाब देंहटाएंस्वार्थ के रँग में रँगे अनुबन्ध हैं,
जवाब देंहटाएंबस दिखावे के लिए सम्बन्ध हैं,
“रूप” अपने भी बिराने हो गये हैं।
बहुत सुन्दर है।