गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
हमने छन्दों को अपनाया।
कल्पनाओं में डूबे जब भी,
सुख से नहीं सोए रातों को।
कम्प्यूटर पर अंकित करके,
साझा किया सभी बातों को।।
जब मौसम ने ली अँगड़ाई,
हमने उसका गीत बनाया।
वासन्ती उपवन के हर
पत्ते-बूटे को मीत बनाया।।
आमों के बागों में आकर,
जब कोयल ने गान सुनाया।
तब हमने भी कोयलिया के
सुर में अपना शब्द मिलाया।।
मन आनन्दित हो जाता जब,
बच्चों की सुनकर किलकारी।
हमने भी बच्चा बनकर तब,
चहका दी नन्हीं फुलवारी।।
मनीषियों की सेवा करने का,
जब भी अवसर पा जाते।
साथ हमारे सब घर वाले,
मन में फूले नहीं समाते।।
इसीलिए तो आज हमारी,
खिलती बगिया है प्रतिपल।
उन सबका आशीष हमारे,
सुख-वैभव का है सम्बल।।
|
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बुधवार, 6 नवंबर 2013
"हमने छन्दों को अपनाया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो आज हमारी,
खिलती बगिया है प्रतिपल।
उन सबका आशीष हमारे,
सुख-वैभव का है सम्बल।।
सुन्दर है।
बहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंकरे खटीमा में सदा, पुण्य-धार्मिक कार्य |
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक परिवार यह, करे सकल उपचार |
करे सकल उपचार, भौतिकी दैहिक दैविक |
कृपा बनाये रखे, सदा हे रविकर मालिक |
रहे सुखी-सम्पन्न, बाँध ना पावे सीमा |
रहे कर्मरत सतत, याद नित करे खटीमा ||
सुंदर जीवन दर्शन.. बधाई !
जवाब देंहटाएंbehtreen....
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो आज हमारी,
खिलती बगिया है प्रतिपल।
उन सबका आशीष हमारे,
सुख-वैभव का है सम्बल।।
यह संतोष ही जीवन का सबसे बड़ा धन है।