ज़िन्दग़ी में बड़े झमेले हैं
घर हमारे बने तबेले हैं
तन्त्र से लोक का नहीं नाता
हर जगह दासता के मेले हैं
बीन कचरा बड़ा हुआ बचपन
राम अब खींच रहे ठेले हैं
है निठल्लों को रोज़गार यहाँ
शिक्षितों के लिए अधेले हैं
अब विरासत में सियासत पाकर
ख़ानदानों ने डण्ड
पेले हैं
चापलूसी के खाद-पानी से
खिल रहे फूल अब विषैले हैं
“रूप” धारण किया
है केले का
पर हक़ीक़त में वो करेले हैं
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मंगलवार, 19 नवंबर 2013
"खिल रहे फूल अब विषैले हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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bahut hi achchi kavita hai shashtri ji ye jhamele aur karele wale ideas hai gajab hai
जवाब देंहटाएंकरेले वो भी नीम चढ़े हैं :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर !
सार्थक रचना .....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएं“रूप” धारण किया है केले का
पर हक़ीक़त में वो करेले हैं
सुन्दर है।
Hai to ye jindagike virodhabhaski kavita fir bhi sabke diloko chhoo lene vali hai. Yatharth darshan.
जवाब देंहटाएंHai to ye jindagike virodhabhaski kavita fir bhi sabke diloko chhoo lene vali hai. Yatharth darshan.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएं:-)