रात में घर तलाश करते हो!
माल क्यों तर तलाश करते हो!!
छल-फरेबी के हाट में जाकर,
भीड़ में नर तलाश करते हो!
ऊँचे महलों से खौफ खाते हो,
नीड़ में ज़र तलाश करते हो!
दौर-ए-मँहगाई के ज़माने में,
खीर में गुड़ तलाश करते हो!
ज़ाम दहशत के ढालने वालों,
पीड़ में सुर तलाश करते हो!
सूखी दरिया में बसे बाशिन्दों,
क्यों समन्दर तलाश करते हो!
“रूप” का आइना दिखा करके,
प्यार की जड़ तलाश करते हो!
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013
"प्यार की जड़ तलाश करते हो" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार गुरु जी ||
उम्दा !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जवाब देंहटाएंज़ाम दहशत के ढालने वालों,
पीड़ में सुर तलाश करते हो!
सूखी दरिया में बसे बाशिन्दों,
क्यों समन्दर तलाश करते हो!
“रूप” का आइना दिखा करके,
प्यार की जड़ तलाश करते हो!
सुन्दर रचना है। गुरु समान भाई पीर शब्द ज्यादा कोमल है पीड़ से।
माई री मैं का से कहूँ पीर अपने जिया की।
गुरुदेव चर्चा मंच का कोई भी लिंक नहीं खुल रहा है आज देखें क्या गड़बड़ है ठीक करें। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 23 /11/2013 को मेरा ये जीवन और नौ ग्रह ... ...( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 049 )
- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएं