महावृक्ष है यह सेमल का,
खिली हुई है डाली-डाली।
हरे-हरे फूलों के मुँह पर,
छाई है बसन्त की लाली।।
पाई है कुन्दन कुसुमों ने
कुमुद-कमलिनी जैसी काया।
सबसे पहले धरती पर
आकर इसने ऋतुराज सजाया।।
सर्दी के कारण जब तन में,
शीत-वात का रोग सताता।
सेमलडोढे की सब्जी से,
दर्द अंग का है मिट जाता।।
जब बसन्त पर यौवन आता,
तब ये खुल कर मुस्काते हैं।
भँवरे इनको देख-देखकर,
मन में हर्षित हो जाते हैं।।
सुमन लगे हैं अब मुर्झाने,
वासन्ती अवसान हो रहा।
तब इन पर फलियाँ-फल आये,
लम्बा दिन का मान हो रहा।।
गर्मी का मौसम आते ही,
चटक उठीं सेंमल की फलियाँ।
रूई उड़ने लगी गगन में,
फूलो-फलो और मुस्काओ,
सीख यही देता है सेंमल।
तन से रहो सुडोल हमेशा,
किन्तु बनाओ मन को कोमल।।
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रविवार, 23 फ़रवरी 2014
"खिली हुई है डाली-डाली" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
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जवाब देंहटाएंनमस्कार शास्त्री जी ...
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंवाह, बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है।
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