जीवन के कवि सम्मेलन में, गाना तो मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
जाने कितने स्वप्न संजोए,
जाने कितने रंग भरे।
ख्वाब अधूरे, हुए न पूरे,
ठाठ-बाट रह गये धरे।
सरदी-गरमी, धूप-छाँव को, पाना तो मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
जितना आगे कदम बढ़ाया,
मंजिल उतनी दूर हो गयीं।
समरसता की कल्पनाएँ सब,
थककर चकनाचूर हो गयीं।
घिसी-पिटी सी रीत निभाना, जन-जन की मजबूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
बचपन बीता, गयी जवानी,
सूरज ढलने वाला है।
चिर यौवन को लिए हुए,
मन सबका ही मतवाला है।
दरवाजों की दस्तक को, पढ़ पाना
बहुत जरूरी है।
आये हैं तो कुछ कह-सुनकर, जाना बहुत जरूरी है।।
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रविवार, 18 मई 2014
"गाना तो मजबूरी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर भावों से सुसज्जित रचना
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंGaanaa majburi se nahi hoti mogor dil se
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर १
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार विचार पर यदि किसी को गाना न आये तो?
जवाब देंहटाएंघिसी पीटी सी रीत निभाना जन जन की मज़बूरी है।
जवाब देंहटाएंएक मजबूर इंसान बंधुवा हो जाता है।
अपनी प्रीत को रीत में भी नहीं बदल सकता।
चिर यौवन को लिए हुए,
जवाब देंहटाएंमन सबका ही मतवाला है।
आदरणीय शास्त्री जी बहुत सुन्दर ..यही तो है जीवन ..आज अभी कुछ अगले पल न जाने क्या ...पर मन तो मन ही है सदा जवान हसीन
भ्रमर ५
waah bahut sundar bat kahi ......geet ke madham se ....bahut-bahut aabhar aapka ....
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