कम्प्यूटर
बन गई जिन्दगी, अन्तरजाल
हुआ है तन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
जंगल
लगता बहुत सुहाना, पर्वत
अच्छे लगते हैं,
प्यारी-प्यारी
बातें करते, बच्चे
सच्चे लगते हैं,
सुन्दर-सुन्दर
सुमनों वाला, लगता
प्यारा ये उपवन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
सुख की
बातें-दुख की बातें, बेबाकी
से देते हैं,
भावों
के सम्प्रेषण से हम, अपना मन
भर लेते हैं.
आभासी
दुनिया में मिलता, हमको
कितना चैन-अमन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
ग़ाफ़िल, रविकर, भ्रमर, यहाँ पर
सुरभित सुमन खिलाते हैं,
उल्लू
और मयंक निशा में, विचरण
करने आते हैं,
पंकहीन
से कमल सुशोभित, करते
बगिया और चमन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
ताऊ
कभी-कभी दिख जाता, उड़नतश्तरी
दूर हुई,
आज फेसबुक के आगे, ब्लॉगिंग बिल्कुल
मज़बूर हुई,
अदा-सदा, वन्दना-कनेरी, महकाती
जातीं उपवन।
जालजगत
के बिना कहीं भी, लगता
नहीं हमारा मन।।
|
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शुक्रवार, 23 मई 2014
"कम्प्यूटर बन गई जिन्दगी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सच कहा ...शास्त्री सर ..
जवाब देंहटाएं~सादर
सुन्दर मोतियों को खूबसूरती से पिरोया है आपने...
जवाब देंहटाएंकल 25/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
सुन्दर....
जवाब देंहटाएं