निन्यानबे के फेर में आया हूँ कई बार
रहमत औ’ करम ने तेरी, मुझको लिया उबार
ऐसे भी हैं कई बशर, अटक गये हैं जो
श्रम करके मैंने अपना, मुकद्दर लिया सँवार
कल तक थी जो कमी, वो पूरी हो गई है आज,
शबनम में आ गया है, मोतियों सा अब निखार
चलता ही रहा जो, वो पा गया है मंजिलें
पतझड़ के बाद आ गई, गुलशन में फिर बहार
नदियाँ मुकाम पा के, समन्दर सी हो गईं
थे बेकरार जो कभी, उनको मिला क़रार
माहताब को दी रौशनी, जब आफताब ने,
बहने लगी है रात में, शीतल-सुखद बयार
चेहरा चमक उठा, दमक उठा है “रूप” भी
फिर से हरा-भरा हुआ, उजड़ा हुआ दयार
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रविवार, 21 अगस्त 2016
ग़ज़ल "आ गई गुलशन में फिर बहार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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