मधुमेह हुआ जबसे हमको,
मीठे से हम कतराते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
आलू, चावल और रसगुल्ले,
खाने को मन ललचाता है,
हम जीभ फिराकर होठों पर,
आँखों को स्वाद चखाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
गुड़ की डेली मुख में रखकर,
हम रोज रात को सोते थे,
बीते जीवन के वो लम्हें,
बचपन की याद दिलाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
हर सामग्री का जीवन में,
कोटा निर्धारित होता है,
उपभोग किया ज्यादा खाकर,
अब जीवन भर पछताते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
थोड़ा-थोड़ा खाते रहते तो,
जीवन भर खा सकते थे,
पेड़ा और बालूशाही को,
हम देख-देख ललचाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
हमने खाया मन-तन भरके,
अब शिक्षा जग को देते हैं,
खाना मीठा पर कम खाना,
हम दुनिया को समझाते हैं।
गुझिया-बरफी के चित्र देख,
अपने मन को बहलाते हैं।।
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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018
गीत "अपने मन को बहलाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ! पर जिस पर बीतती है वही जानता है !!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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