सूख रही है धरा से, गीत-ग़ज़ल की धार।
धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।।
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कैसे देंगे गन्ध को, ये काग़ज़ के फूल।
फूल नोच माली चला, बचे नुकीले शूल।।
मन में तो है कुटिलता, अधरों पर मुस्कान।
अपनेपन की हो यहाँ, कैसे अब पहचान।।
पहले जैसी हैं कहाँ, अब निश्छल मनुहार।
धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।१।
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बेटों ने परदेश में, जमा किया धन-माल।
सोनचिरैया इसलिए, हुई बहुत कंगाल।
खाते कुत्ते-बिल्लियाँ, बिस्कुट-बटर-पनीर।
लेकिन बूढ़े पिता की, आँखों में है नीर।।
शादी करके पुत्र नें, बाँट लिया घर-बार।
धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।२।
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सरगम के सुर कर रहे, आपस में उत्पात।
कदम-कदम पर हो रहा, घात और प्रतिघात।।
पाल-पोषकर कर दिया, जिसको युवा बलिष्ठ।
निष्ठा सारी छोड़ कर, वो हो गया अनिष्ठ।।
बेटा जीवित बाप से, माँग रहा अधिकार।
धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।३।
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लोग बुन रहे देश में, मकड़ी जैसा जाल।
अब दूषित परिवेश में, जीना हुआ मुहाल।।
नज़र न आता है कहीं, अब नैसर्गिक “रूप”।
कृत्रिमता के दौर में, मिले कहाँ से धूप।।
मानवता का आज तो, खिसक रहा आधार।
धीरे-धीरे घट रहा, लोगों में अब प्यार।४।
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शनिवार, 15 जून 2019
दोहागीत "खिसक रहा आधार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16 -06-2019) को "पिता विधातारूप" (चर्चा अंक- 3368) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकटु यथार्थ
जवाब देंहटाएं