"मानव है अंजान" -- कुछ दिनों पहले मेरे बाँयीं ओर के जबड़े की ऊपर की एक दाढ़ खुक्खल हो कर टूट गयी थी। जिससे खाना खाते समय भोजन का अंश उसमें फँस जाता था। इसलिए मैं भोजन को चबाने का काम दायी ओर से ही करता था। कुछ समय बाद दायीं ओर की नीचे की एक दाढ़ हिलने लगी लेकिन खाना खाने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। कल अचानक दायीं ओर की इस दाढ़ को ऊपर वाली दाढ़ ने इस प्रकार कुचला कि यह एक और को झुक गयी और टूट गयी। मन में बहुत चिन्ता हुई और इस चिन्ता ने सोचने को मजबूर कर दिया कि आखिर अपने ही घर के अभिन्न साथी को दूसरे साथी घर से बाहर क्यों कर देते हैं? तभी विचार आया कि जब घर का कोई सदस्य मर जाता है तो उसे जल्दी से जल्दी घर से बाहर कर दिया जाता है। शायद इसीलिए मेरे मुख रूपी घर से एक सदस्य के निष्प्राण होने पर घर के दूसरे सदस्यों ने यह किया होगा। अर्थात कुदरत के कानून से ही लौकिक कानून बने होंगे। समझ न आया आज तक, कुदरत का विज्ञान। निर्बल को जीने नहीं, देते हैं बलवान।। -- कुदरत के कानून से, मानव है अंजान। इसीलिए अभिमान में, रहता है इंसान।। -- जग में सब कुछ है सुलभ, रखना हरदम ध्यान। कर्मों के अनुसार ही, मिले मान-अपमान।। -- जीते जी आया नहीं, कभी गाय का ध्यान। मर जाने के बाद क्यों, करते हैं गोदान।। -- मानव कितना ही रहे, बनकर अफलातून। दया कभी करता नहीं, कुदरत का कानून।। -- |
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शनिवार, 17 अगस्त 2024
दोहे "मानव है अंजान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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