-- घर-आँगन वो बाग सलोने, याद बहुत आते हैं बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं -- जब हम गर्मी में की छुट्टी में, रोज नुमाइश जाते थे इस मेले को दूर-दूर से, लोग देखने आते थे सर्कस की वो हँसी-ठिठोली, भूल नहीं पाये अब तक जादू-टोने, जोकर-बौने, याद बहुत आते हैं बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं -- शादी हो या छठी-जसूठन, मिलकर सभी मनाते थे आस-पास के लोग प्रेम से, दावत खाने आते थे अब कितना बदलाव हो गया, अपने रस्म-रिवाजो में दावत के वो पत्तल-दोने याद बहुत आते हैं बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं -- कभी-कभी हम जंगल से भी, सूखी लकड़ी लाते थे उछल-कूद कर वन के प्राणी, निज करतब दिखलाते थे वानर-हिरन-मोर की बोली, गूँज रही अब तक मन में जंगल के निश्छल मृग-छौने याद बहुत आते हैं बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं -- लुका-छिपी और आँख-मिचौली, मन को बहुत लुभाते थे कुश्ती और कबड्डी में, सब दाँव-पेंच दिखलाते थे होले भून-भून कर खाते, खेत और खलिहानों में घर-आँगन के कोने-कोने याद बहुत आते हैं बचपन के सब खेल-खिलौने, याद बहुत आते हैं -- |
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गुरुवार, 29 अगस्त 2024
गीत "जादू-टोने, जोकर-बौने, याद बहुत आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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