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रविवार, 1 नवंबर 2009
"पागलपन करता रहता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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आज कल हर पोस्ट की हर लाइनें यूँ कहे शब्द शब्द दिल पर छा जाते है... शास्त्री जी बहुत बढ़िया लगी आपकी यह पागल वाली कविता..बहुत बहुत बधाई!!
जवाब देंहटाएंमन में बैठा है इक पागल,
जवाब देंहटाएंपागलपन करता रहता है।
मर-मर कर जीता रहता है,
जी-जीकर मरता रहता है।।
bahut hi sunder panktiyan......
har shabd jeevant hain....
बहुत सुन्दर कविता शास्त्री जी ....बधाई
जवाब देंहटाएंऐसी राह चुनी है इसने, जिसका कोई अन्त नही है,
जवाब देंहटाएंइसका कोई धर्म नही है, इसका कोई पन्थ नही है,
जमीनी सच्चाई की रचना. सरलता और सादगी से कही बात दिल को छू गयी.
shastri ji,
जवाब देंहटाएंkis kis panktyi ki tarif karoon.......dil mein bahut hi gahre utar gayi har pankti.......kitna sach kaha hai.........bahut hi sundar.
बेहद सटीक रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम
दुर्जन की बस्ती में अक्सर,
जवाब देंहटाएंसत्संगी डरता रहता है।
बहुत श्रेष्ठ हैं ये पंक्तियां, बधाई।
बहुत सुन्दर सर शुक्रिया ....
जवाब देंहटाएंपागलपनती भी जरूरी है
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना...वो पागल!!
जवाब देंहटाएंवाह शास्त्री जी आपकी इस कविता को पढ़कर मैं निशब्द हो गई! बहुत ही सुंदर और दिल को छू लेने वाली कविता है!
जवाब देंहटाएंमन में बैठा पागल करता है सब कुछ ...शुक्र है ...जो समझते हैं ...दूर करने की कोशिश कर लेते हैं ...!!
जवाब देंहटाएंमन में बैठा है इक पागल,
जवाब देंहटाएंपागलपन करता रहता है।
मर-मर कर जीता रहता है,
जी-जीकर मरता रहता है।।
अपनी भी सेम प्रोबलम है शास्त्री जी, और मैं समझता हूँ की यह लगभग सभी लेखको, साहित्यकारों और कवियों के साथ होता है !
उल्कापिण्ड टूटकर, जैसे नीलगगन मे घूम रहा हो,
जवाब देंहटाएंलगता है मानव, दानवता की सीढ़ी को चूम रहा हो,
दुर्जन की बस्ती में अक्सर,
सत्संगी डरता रहता है।
सुन्दर कविता!