किस पथ पर मैं कदम बढ़ाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
दोराहे
मन को भटकाते
मुझको
अपनी ओर बुलाते
कैसे
उलझन को सुलझाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
किसी
डगर में नहीं फूल हैं
दोनों
में भरपूर शूल हैं
दुविधा
है किसको अपनाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
मीठी
वाणी बोल रहे हैं
मेरा
सुमन टटोल रहे हैं
संगी-साथी
किसे बनाऊँ
जिससे
मंजिल को पा जाऊँ
लील
गयी है चाँद अमावस
लाऊँ
कहाँ से उजली पावस
नाथ आपको कैसे पाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ |
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बुधवार, 24 जुलाई 2013
"कैसे उलझन को सुलझाऊँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर छन्दबन्ध..
जवाब देंहटाएंशानदार :)
जवाब देंहटाएंकिसी डगर में नहीं फूल हैं
जवाब देंहटाएंदोनों में भरपूर शूल हैं
दुविधा है किसको अपनाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ
bahut sunder
किसी डगर में नहीं फूल हैं
जवाब देंहटाएंदोनों में भरपूर शूल हैं
दुविधा है किसको अपनाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ...बहुत खुबसूरत छन्दबन्ध..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंlatest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
latest दिल के टुकड़े
खूबसूरत पंक्तियाँ !
जवाब देंहटाएंदुनियां दो मुँहीं है शाश्त्री जी. सुंदर छंद.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जवाब देंहटाएंापने लिखा... हमने पढ़ा... और भी पढ़ें...इस लिये आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 26-07-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
जय हिंद जय भारत...
मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...
मन की उलझनों का सुन्दर चित्रण, बधाई.
जवाब देंहटाएंकिसी डगर में नहीं फूल हैं
जवाब देंहटाएंदोनों में भरपूर शूल हैं
दुविधा है किसको अपनाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ......bakhubi chitran kiya hai duvidhagrast mn ka lajavab ....
राहों का यही द्वंद्व विचलित करता है, रास्ता इतनी आसानी से मिलता कहाँ है !
जवाब देंहटाएंभावना में पगे मानसिक द्वंद की अनूठी अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंमन के द्वंद को शब्दों में उतारा है ... मधुर गीत बन के मन में समाता है ...
जवाब देंहटाएंलील गयी है चाँद अमावस
जवाब देंहटाएंलाऊँ कहाँ से उजली पावस
नाथ आपको कैसे पाऊँ
जिससे मंजिल को पा जाऊँ....बहुत सुंदर
सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएं